असली स्टांप पेपर की छपाई से निकलने वाली रद्दी से बिहार में फर्जी स्टांप पेपर बनाकर पूरे यूपी में बेचे जा रहे थे। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह रद्दी बंगाल से आती है या फिर महाराष्ट्र के नासिक से। पुलिस को पटना के उस रविंद्र नाम के शातिर की अब तलाश है, जो पिछले कई साल से यह रद्दी वाला कागज उपलब्ध कराता था। वह रहने वाला कहां का है।
इसकी सटीक जानकारी तो किसी को नहीं है लेकिन कमरुद्दीन ने उसका मोबाइल नंबर देते हुए एक मकान का पता दिया है। जहां पर वह किराये पर रहा करता था। उसके पकड़े जाने के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि बंगाल या फिर नासिक, कहां से कागज और इंक आता है। पुलिस के मुताबिक, 1986 में कमरुद्दीन पुलिस के हत्थे तो चढ़ा, लेकिन बच भी गया।
तब बिहार पुलिस उसके खिलाफ सबूत ही नहीं जुटा पाई और कम संख्या में स्टांप बरामद होने का उसे फायदा मिल गया। कमरुदीन ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा और इस अवैध धंधे के दायरे को बिहार से बढ़ाकर उत्तर प्रदेश के कई जिलों तक पहुंचा दिया। एक बार फिर पुलिस उसके पीछे पड़ी तो 2014 में उसके बेटे का नाम सामने आया, लेकिन कमरुद्दीन अपनी उम्र का फायदा उठाते हुए एक बार फिर बच निकला और धंधे को बदस्तूर जारी रखा।
अब गोरखपुर में मामला पकड़े जाने के बाद उसका भेद खुला है और वह जेल भिजवाया गया है। इस पूरे प्रकरण की एक कड़ी को ही अभी पुलिस पकड़ पाई है वह छपाई का है। इंक, कागज कहां से लाया जाता था, इस कड़ी को अब भी पकड़ना बाकी है। आरोपी जिस कागज का इस्तेमाल करते हैं, वह असली स्टांप वाले कागज की तरह ही है, यही वजह है कि आसानी से इसे कोई पकड़ नहीं पाता है।
ऐसे खुला था मामला
10 जनवरी 2024 को हुमायूंपुर दक्षिणी, दुर्गाबाड़ी रोड निवासी व अधिवक्ता राजेश मोहन ने शिकायत की थी। उनका कहना है कि सहायक महानिरीक्षक निबंधन के कार्यालय में 28 फरवरी 2023 को ऑनलाइन आवेदन द्वारा भारतीय कोर्ट फीस 53 हजार का स्टांप रिफंड के लिए आवेदन किया था।
अधिवक्ता की मदद से आवेदन करने पर पता चला कि स्टांप ही फर्जी है। महज तीन हजार का स्टांप सही पाया गया, बाकी 50 हजार का फर्जी था। डीएम के आदेश पर नासिक भी पत्र भेजकर इसके फर्जी होने की पुष्टि करा ली गई। इसके बाद ही पुलिस केस दर्ज कर पूरे प्रकरण की जांच शुरू की और मामला खुलकर सामने आ गया।
आरोपी को लगा था, नहीं होगी जांच
कोई कितना शातिर क्यों न हो, कानून की सख्ती में फंस ही जाते हैं। फर्जी स्टांप मामले में भी यही हुआ। दरअसल, कोर्ट में फीस के रूप में स्टांप जमा होता है। केस में मेरिट के आधार पर निस्तारण होने पर कोर्ट फीस वापस नहीं होती है। अभियुक्त ने इसी बात का फायदा उठाने के उद्देश्य से फर्जी स्टांप बेचे थे। चूंकि वाद में सुलह-समझौते के आधार पर मुकदमे का निस्तारण लोक अदालत में हुआ था। उसे लगा कि अब स्टांप वापस तो होगा नहीं और वह आसानी से बच जाएगा। इसकी जांच होनी नहीं है, लेकिन एक पक्ष ने रिफंड दाखिल किया तो फर्जीवाड़ा सामने आ गया।